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अभी इस तरफ़ न निगाह कर
मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ,
मेरा लफ़्ज़-लफ़्ज़ हो आईना
तुझे आईने में उतार लूँ।
उफ्फ ये नज़ाकत ये शोखियाँ ये तकल्लुफ़,
कहीं तू उर्दू का कोई हसीन लफ्ज़ तो नहीं।
ख़ुद न छुपा सके वो अपना चेहरा नक़ाब में,
बेवज़ह हमारी आँखों पे इल्ज़ाम लग गया।।
ये आईने क्या दे सकेंगे तुम्हें
तुम्हारी शख्सियत की खबर,
कभी हमारी आँखो से आकर पूछो
कितने लाजवाब हो तुम।
कुछ इस तरह से वो मुस्कुराते हैं,
कि परेशान लोग उन्हें देख कर खुश हो जाते हैं,
उनकी बातों का अजी क्या कहिये,
अल्फ़ाज़ फूल बनकर होंठों से निकल आते हैं।
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